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Monday 12 October 2015


For Engineering Student

 इस समय तकनीकी और उच्च शिक्षा सबसे बुरे दौर में है। पिछले पांच साल से उच्च शिक्षा का समूचा ढांचा चरमरा गया, लेकिन किसी सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया। यूपीए के शासनकाल में 2010 से तकनीकी शिक्षा में गुणवत्ता की नीव कमजोर होनें लगी थी और देश भर में इंजीनियरिंग सहित कई तकनीकी कोर्सों में लाखों सीटें खाली रहने लगी थी, जिसका आंकड़ा साल दर साल बढ़ता गया, लेकिन केंद्र सरकार ने इतने संवेदनशील मुद्दे पर कुछ नहीं किया।


पिछले एक साल से एनडीए सरकार ने भी इस स्थिति से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। हालात यह यह है वर्तमान सत्र में पूरे देश में तकनीकी और उच्च शिक्षा में 7 लाख से ज्यादा सीटें खाली है। कहने का मतलब यह कि साल दर साल स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। तकनीकी और इंजीनियरिंग स्नातकों में बेरोगारी लगातार बढ़ रही है।
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सरकार का सारा ध्यान सिर्फ कुछ सरकारी यूनिवर्सिटीज, आईआईटी, आईआईएम् ,एनआईटी जैसे मुट्ठीभर सरकारी संस्थानों पर है। जबकि देश भर में 95 प्रतिशत युवा निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों से शिक्षा लेकर निकलते हैं और सीधी सी बात है, अगर इन 95 प्रतिशत छात्रों पर कोई संकट होगा तो वो पूरे देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक स्थिति को भी नुकसान पहुंचाएगा। सिर्फ 5 प्रतिशत सरकारी संस्थानों की बदौलत विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकता।
उच्च शिक्षा में जो-जो मौजूदा संकट है, उसे समझनें के लिए सबसे पहले इसकी संरचना को समझना होगा। मसलन एक तरफ सरकारी संस्थान है दूसरी तरफ निजी संस्थान और विश्वविद्यालय हैं। निजी संस्थानों भी दो तरह के हैं, एक वो हैं जो छात्रों को डिग्री के साथ साथ हुनर भी देते है जिससे वो रोजगार प्राप्त कर सकें। ये संस्थान गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध है और उसके लिए लगातार प्रयास कर रहें है, ये छात्रों के स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान देते हुए उन्हें उच्च स्तर की ट्रेनिंग मुहैया करा रहें है।
वहीं दूसरी तरफ कई प्राइवेट यूनिवर्सिटी और संस्थान सिर्फ डिग्री देनें की दूकान बन कर रह गए हैं। ये खुद न कुछ अच्छा करतें है बल्कि जो भी संस्थान बेहतर काम करनें की कोशिश करता है, उसके खिलाफ काम करने लगते हैं, साथ में कुछ अच्छे संस्थानों और विश्वविद्यालयों को बेवजह और झूठे तरीके से बदनाम करने की भी कोशिश की जाती है और इस काम में कई बार मीडिया का सहारा लेकर कई गलत ख़बरें और गलत तथ्य प्लांट किए जाते हैं, जो की पेड़ मीडिया का एक हिस्सा है। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले पांच सालों में उच्च और तकनीकी शिक्षा में छाई इतनी मंदी के बाद भी इन संस्थानों और यूनीवर्सिटीज में पर्याप्त संख्या में छात्र हैं। एक तरह जहां देश के अधिकांश संस्थानों में लाखों की संख्या में सीटें खाली है, वहीं दूसरी तरह इनकी सीटें भरी हुई हैं। इसी से पता चलता है कि ये गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध है, जिसकी वजह से छात्र इनकी तरफ आकर्षित हो रहें है!
अधिकांश निजी संस्थान उच्च शिक्षा में छाई मंदी से इस कदर हताश और निराश हो चुके हैं कि अब वो कुछ नया नहीं करना चाहते, न ही उनके पास छात्रों को स्किल्ड बनाने की कोई कार्य योजना है। दूसरी तरफ जो संस्थान अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा और स्किल ट्रेनिंग देने की कोशिश कर रहें हैं, उन्हें नियम कानून का पाठ पढ़ाया जा रहा है। उन्हें तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है, मतलब वो स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रहें है। कहने का मतलब यह कि जो संस्थान देश हित में छात्र हित में कुछ इनोवेटिव फैसले ले रहे हैं, वो सरकारी लाल फीताशाही का शिकार हो रहे हैं। कुल मिलाकर यह स्थिति बदलनी चाहिए। दशकों पुराने क़ानून बदलने चाहिए।
शिक्षाविद डॉ. अशोक कुमार गदिया के अनुसार हर संस्थान, चाहे वो सरकारी हो या निजी हो उसे अपने स्तर पर छात्रों को स्किल ट्रेनिंग की आजादी मिलनी चाहिए। इसके साथ ही देश के सभी तकनीकी और उच्च शिक्षण संस्थानों में स्किल डेवलपमेंट को शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाने की कोशिश होनी चाहिए। क्योंकि देश में  स्किल्ड युवाओं की भारी संख्या में कमी है ।
पिछले दिनों सीआईआई की इंडिया स्किल रिपोर्ट-2015 के मुताबिक हर साल सवा करोड़ युवा रोजगार बाजार में आते हैं। आने वाले युवाओं में से 37 प्रतिशत ही रोजगार के काबिल होते हैं। यह आंक़डा कम होने के बावजूद पिछले साल के 33 प्रतिशत के आंक़डे से ज्यादा है और संकेत देता है कि युवाओं को स्किल देने की दिशा में धीमी गति से ही काम हो रहा है। डिग्री और स्किल के बीच फासला बहुत बढ़ गया है। इतनी बड़ी मात्रा में पढ़े-लिखे इंजीनियरिंग बेरोजगारों की संख्या देश की अर्थव्यवस्था और सामजिक स्थिरता के लिए भी ठीक नहीं है।
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असल में हमने यह बात समझनें में बहुत देर कर दी की अकादमिक शिक्षा की तरह ही बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल की शिक्षा देनी भी जरूरी है। एशिया की आर्थिक महाशिक्त दक्षिण कोरिया ने स्किल डेवलपमेंट के मामले में चमत्कार कर दिखाया है और उसके चौंधिया देने वाले विकास के पीछे स्किल डेवलपमेंट का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है।
इस मामले में उसने जर्मनी को भी पीछे छोड़ दिया है। 1950 में दक्षिण कोरिया की विकास दर हमसे बेहतर नहीं थी। लेकिन इसके बाद उसने स्किल विकास में निवेश करना शुरू किया। यही वजह है कि 1980 तक वह भारी उद्योगों का हब बन गया। उसके 95 प्रतिशत मजदूर स्किल्ड हैं या वोकेशनलीट्रेंड हैं, जबकि भारत में यह आंक़डा तीन प्रतिशत है। ऐसी हालत में भारत कैसे आर्थिक महाशिक्त बन सकता है?
अधिकांश कॉलेजों से निकलने वाले लाखों युवाओं के पास इंजीनियरिंग या तकनीकी डिग्री तो है, लेकिन कुछ भी कर पाने का स्किल नहीं है, जिसकी वजह से देश भर में  हर साल लाखों लाखों इंजीनियर बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर है। हमें यह बात अच्छी तरह से समझनी होगी की “”स्किल इंडिया” के बिना “”मेक इन इंडिया”” का सपना भी नहीं पूरा हो सकता, इसलिए इस दिशा में अब ठोस और समयबद्ध प्रयास करनें होंगे।
निश्चित ही इतनी बड़ी युवा आबादी से अधिकतम लाभ लेने के लिए भारत को उन्हें स्किल बनाना ही होगा, जिससे युवाओं को रोजगार व आमदनी के पर्याप्त अवसर मिल सकें। सीधी सी बात है जब छात्र स्किल्ड होगें तो उन्हें रोजगार मिलेगा तभी उच्च और तकनीकी शिक्षा में व्याप्त मौजूदा संकट दूर हो पाएगा।

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